विकास का एजेंडा
पिछले कुछ समय से भारत में हर कोई विकास की बात कर रहा है। जो भी इस विकास के रास्ते का रोड़ा बन रहा है जैसे की कानून, कमीशन, एजेंसीज, सरकार उन सबको खतम कर रही है। इस विकास के लिए कुछ भी करने को उमादा है सरकार। ऐसा नहीं है की पहले की सरकारे विकास की बाते नहीं करती थी। पर वो विकास के लिए पागल नहीं थी, बस सुस्त सी थी। पर जबसे 18 घण्टे काम करने वाला प्रधान मंत्री हमें नसीब हुआ है तबसे विकास भाग रहा है किसका विकास भाग रहा है ये बहस का मुदा है। 2018 में हिमाचल प्रदेश में भी विकास का प्रवेश हुआ। और जैसा की विकास के साथ हर बार होता है हिमाचल में धारा -118 उसके रास्ते का रोड़ा बन गई। तो फिर क्या था सरकार ने आते ही सबसे पहला काम इसे बदलने का किया पर कामियाब ना हो सकी। धारा -118 का कानून हिमाचल के मूल निवासियों के हितों कि सुरक्षा करता है। धारा -118 किसी भी गैर हिमाचली को राज्य में भूमि खरीदने के अधिकार से रोकती है। ये अधिकार हिमाचल के लोगों को 1972 में दिया गया था। पर पिछले कुछ समय से सरकारें इस कानून को खत्म करने में लगी हैं। सवाल ये है विकास के लिए इस कानून की बलि क्यों। क्या बिना इसमें बदलाव के विकास नहीं हो सकता, और वो कौन सा विकास है जो जमीन बेच कर ही हो सकता है। इन सब सवालों के जवाब के लिए हमें थोड़ा रुक के पिछले कुछ सालों कि घटनाओं को समझना होगा। जो कानून लोगों के हितों कि सुरक्षा के लिए था 40 सालों में सरकार कि समस्या क्यों बन गया।
इस कानून के बने के पीछे की कहानी इसका महत्व जाहिर करती है। 1970 में जब हिमाचल को राज्य का दर्जा मिला तो ये कानून नहीं था। डॉ यशवंत सिंह परमार जो की हिमाचल के पहले मुख्य मंत्री थे उन से कुछ लोग मिलने आए। ये वो लोग थे जिन्हों ने अपनी जमीन बाहरी राज्यों के लोगो को बेच दी थी, और बाद में उन्हीं बाहरी लोगों के यहाँ नौकर बन गए। बाहर के अमीर लोग हिमाचल में धड़ले से जमीन खरीद रहे थे। हिमाचल के लोगों के हितों की सुरक्षा के लिए ये कानून बनाया गया। ब्रिटिश राज में हिमाचल अंग्रेजों के घूमने और रहने की जगा थी. अगर ये कानून ना होता तो आज हिमाचल दूसरे राज्यों के अमीरों की रहने कि जगह होती। इस कानून ने हिमाचलियों को जमीन का अधिकार ही नहीं आत्मसमान भी दिया। इसी कानून ने हिमाचल प्रदेश को एक अलग पहचान दी। हिमाचल का हर निवासी जानता है कि कानून बदला गया तो दस सालों में हिमाचल का कोना -कोना बिक जाएगा। डॉ परमार जानते थे इसका नुक्सान हिमाचल के भोले-भले लोगों को उठाना पड़ेगा। चंद पैसों का लालच दिखा के अमीर लोग हिमाचल की कीमती जमीन खरीद लेंगे और हिमाचल के लोग जिनका मूल काम किसानी था भूमि हीन हो जायेंगे। इसलिए उन्होंने ये कानून बनया। पर पिछले कुछ सालों से सरकार इस कानून को कमज़ोर करने में लगी है। ताकि बाहरी लोग जमीन खरीद सकें अपने हॉटल ,रिसॉर्ट ,फैक्ट्री , हिमाचल में खोल पाएं । सरकार ये सब विकास के नाम पर कर रही है। सरकार का तर्क ये है कि जमीन बेचेंगे तभी विकास होगा। जब जमीन ही नहीं रही तो विकास किसका होगा। हिमाचल के लोगों का या अमीरों का ?
सरकार के बताए विकास की बात करते है जो हमें 2014 से बड़े ज़ोर -सोर से सुनाया जा रहा है। और उसे पहले कि सरकरे भी बीच बीच में सुनती थी। विकास जो लोगों को बताया जाता है और जो अंत में होता है उसमें जमीन आसमान का फर्क होता है। इसका अंतर विकास की परीभाषा से ही समज आ जाता है। विकास उन विकासशील देशों को संदर्भित करता है जो आर्थिक प्रदर्शन, जीवन स्तर, स्थिरता और समानता की सीढ़ी को अपना रास्ता बनाते हैं जो उन्हें तथाकथित विकसित देशों से अलग करता है। अब हिमाचल के संदर्भ मे बात करें तो हिमाचल के लोगों का आर्थिक प्रदर्शन, जीवन स्तर, भारत के अन्य राज्यों से ऊपर है उन राज्यों से कहीं ज्यादा जहाँ की जमीन बिकाऊ है। और जो कुछ भी थोड़ी बहुत कमी है वो धारा -118 के कारण नहीं सरकारों की अपनी गलतियों के कारण है। हिमाचल के लोगो ने अपनी मेहनत से विकास किया तभी वो भारत के विकसित राज्यों में शामिल न की जमीन बेच कर।
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